भक्ति योग की ओर बढ़ते कदम

भक्ति योग की ओर बढ़ते कदम

यह भक्ति योग की शताब्दी साबित होगी। सिद्ध संतों की आत्मानुभूतियों और यौगिक अनुसंधानों की दिशा-दशा इस बात की गवाही दे रही है। संकेतों के आधार पर कहना होगा कि इस शताब्दी में भक्ति भावना और भक्ति योग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे। श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ इस शताब्दी में वैज्ञानिक इस अवरोध को दूर करेंगे।

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श्रीमद्भगवतगीता को मनोविज्ञान का भी सबसे बड़ा ग्रंथ माना जाता है। इसके विषाद योग और भक्ति भावना पर दुनिया के अनेक हिस्सों में शोध किया जा रहा है। महामृत्युंजय मंत्र से लेकर अजपा जप और संकीर्त्तन की शक्ति पर शोध चल रहा है। कई शोधों के आशाजनक परिणाम सामने आए हैं। प्राचीन काल में भक्ति का आधार आत्मज्ञान था और आम लोग उसे आस्था व विश्वास के रूप में स्वीकारते थे। इस सदी में वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भक्ति भाव को स्वीकार्यता मिलेगी। वैज्ञानिक बताएंगे कि भक्ति का विज्ञान क्या है, यह मानव पर किस तरह काम करता है और उसकी जरूरत क्यों है? वैज्ञानिक अनुसंधान करके पता लगाएंगे कि मीराबाई जहर का प्याला पी गईं और उन पर उसका असर क्यों नहीं हुआ था? ईसा मसीह तीन दिनों तक सूली पर लटके होने के बावजूद जीवित कैसे रह गए थे? तैलंग स्वामी, जिन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था, कड़े पहरे में जेल में होने के बावजूद किस तरह सड़कों पर घूमते-फिरते दिख जाते थे?

पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक भक्ति पर अनुसंधान करके बताएंगे कि आस्था, विश्वास और भक्ति का मानव पर किस तरह प्रभाव डालता है? भक्ति मानव मस्तिष्क के विद्युत चुंबकीय तरंगों को किस तरह प्रभावित करती है?  एंजाइमों को किस तरह प्रभावित करती है? उससे हृदयवाहिका तंत्र में किस तरह का बदलाव होता है?  शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं में जो परिवर्तन होता है, उसे वैज्ञानिक भाषा में किस तरह परिभाषित किया जाए और उसे कौन-सा नाम दिया जाए? वैज्ञानिक अपने अनुसंधान का दायरा अब पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि तक ही सीमिति नहीं रखेंगे।

वैदिक काल के वैज्ञानिकों यानी हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था कि सृष्टि में छोटे अणु से लेकर विशाल आकाशगंगा तक सभी कुछ एक परमात्मा में व्याप्त है। उन्होंने इसे संस्कृत में ऐसे कहा – “अणोरणियाम् महतो महीयान्।“ वेद व्यास से लेकर महर्षि वाल्मिकी तक और उनके बाद के संत भी देश-काल को ध्यान में रखकर वेद और उपनिषदों की इस बात को अलग-अलग तरीकों से समझाते रहे। वे बताते थे कि मानव के अस्तित्व के अलावा भी ब्रह्मांड में अन्य कोई अस्तित्व है, जिसका स्वरूप दिव्य है। आत्म-ज्ञानी संतों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा कि मनुष्य ही ब्रह्मांड की प्रतिमूर्ति है। जो बाहर है, वह भीतर भी है। आधुनिक काल में भी हम इसे अद्वैत वेदांत कहते हैं। तभी निष्कर्ष निकाला गया कि चेतना का विस्तार करके पारलौकिक चीजों से साक्षात्कार संभव है। पर तर्क की दुनिया में जीने वाले बुद्धिजीवियों को यह बात तब समझ में आई, जब अल्बर्ट आइंस्टाइन ने इसे युनिफाइड फील्ड थीयरी के रूप में परिभाषित कर दिया। इस थीयरी की मान्यता है कि ब्रह्मांड में सृष्टि का हर पदार्थ व्यापक अदृश्य माध्यम के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ा है।

आइंस्टाइन ने कहा था – “आंखों से दिखने वाली यह पृथकता केवल भ्रम है। असलियत में इस ब्रह्मांड में स्थित हम सभी एक ही हैं। बस, हमें अपनी अनुकंपा की सीमाओं को इतना बढ़ाना होगा कि हम सारे विश्व को अपने दायरे में समा लें।“ यह अजीब बात है कि जब आइस्टाइन कहते हैं E = mc2 तो उसे परखने की जरूरत महसूस नहीं होती। यदि शास्त्रसम्मत बातें हों तो कई सवाल खड़े किए जाते हैं। पर समय बदल रहा है। इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। अब वैज्ञानिक भी खुले तौर पर कहेंगे कि इस विश्व और आकाश गंगा में हर जीव-जंतु जिस अदृश्य शक्ति से आपस में जुड़े हैं, वही परमात्मा है।  

आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने अपने आत्म-ज्ञान, अपनी दिव्य-दृष्टि के आधार पर कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भोग की अतिशयता पर लगाम लगेगी। मानसिक असंतुलन रूकेगा। विध्वंस की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए ऐसा होना शुभ है। दरअसल, स्वामी सत्यानंद समाधि से पहले जब सत्संग कर रहे थे तो अचानक रूक गए थे। फिर प्रसंग बदलकर कहने लगे थे, “अचानक मुझे नई शताब्दी की घटनाओं की झलक मिली है। इस शताब्दी में योग नेपथ्य में चला जाएगा, भक्ति की भूमिका प्रधान होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में।“

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि अब बहुत हो गया। हम जितना प्रयोग कर रहे हैं, दुनिया उसका उपयोग अपने विनाश के लिए कर रही है। मानव उनको विकृत कर रहे हैं, उनका दुरूपयोग कर रहे हैं। यह भोग की अतिशयता है। विकसित देशों के लोगों को भी थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है कि भोगवाद में सिवाय अशांति के कुछ हाथ नहीं लगा। पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं। यह भक्ति युग के आगमन की आहट ही तो है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

 

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